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राजनीति में क्षेत्रीयता

Guest Writer - Jagran
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भारतीय राजनीति सत्तावादी है। सत्ता लाभ देती है। सो राजनीति अरबों-खरबों रुपए वाला एक विशाल उद्योग है। यहां मुनाफा ही मुनाफा है। हाईकमान की अनुकंपा हो तो राज्यपाल, राजदूत, निगम-आयोग, राज्यसभा जैसी हजारों कुर्सियां हैं। राजनीतिक संगठनो में भी आकर्षक पद हैं। स्वाभाविक ही बड़ी पूंजी वाले ढेर सारे लोग इस उद्योग में पूंजी निवेश कर रहे हैं।

राजनीति अब निजी पूंजी निर्माण का लाभप्रद क्षेत्र है। अर्थशास्त्री प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने स्वाभाविक ही छोटे दलों को सत्तावादी बताया है। मनमोहन-अर्थशास्त्र में छोटे उद्योग बेमतलब हैं। बेशक क्षेत्रीय दलों के विचार उनके अपने राज्य और क्षेत्र से भी छोटे हैं। कई क्षेत्रीय दल अपने गांव, जिला और कर्मक्षेत्र को ही देश मानते हैं और शेष भारत से टकराते हैं। कई छोटे दल अपनी जाति-उपजाति को लेकर ही सक्रिय हैं। सो जातियों की पार्टियां हैं, पार्टियों की जातियां हैं। बावजूद इसके क्षेत्रीय दल अपने-अपने क्षेत्रों की आवाज हैं। प्रधानमंत्री ने क्षेत्रीय दलों को ही सत्तावादी कहा तो कांग्रेस सहित बाकी राष्ट्रीय दल भी सत्तावादी क्यों नहीं हैं? प्रधानमंत्री को राजनीतिक दल की परिभाषा भी करनी चाहिए।

हेराल्ड लास्की या डायसी जैसे यूरोपीय विद्वानों ने विशेष विचार लेकर सत्ता का दावा करने वाले आंतरिक लोकतंत्र से लैस समूह को राजनीतिक दल बताया है। वास्तविक राजनीतिक दल एक परिवार की कंपनी नहीं होते। दल अपना संविधान बनाते हैं, विभिन्न स्तरों पर निर्वाचित कमेटियां होती हैं। क्या भारत के दल ऐसी शर्ते पूरी करते हैं? भारत में सात दलों को राष्ट्रीय मान्यता है। भाजपा, माकपा और भाकपा ही कमोबेश संवैधानिक दल चलाते हैं। बाकी चार पार्टियों में एक राजद लालू प्रसाद की, कांग्रेस से टूटकर बनी एनसीपी शरद पवार की, बसपा मायावती की और कांग्रेस सोनिया गांधी की प्रापर्टी है। इसी तर्ज पर पंजीकृत 37 क्षेत्रीय दलों में समाजवादी पार्टी मुलायम सिंह की, शिवसेना बाल ठाकरे की, तेलगूदेशम चंद्रबाबू नायडू की, बीजू जनता दल नवीन पटनायक की, डीएमके करुणानिधि की, एआईडीएमके जयललिता की, जद (सेकुलर) देवगौड़ा की, झारखंड मुक्ति मोर्चा शिबू सोरेन की, तृणमूल कांग्रेस ममता बनर्जी की, केरल कांग्रेस पी. जोजेफ की, केरल कांग्रेस (एम) सीएफ थामस की, असम गण परिषद प्रफुल्ल महंत की, राष्ट्रीय लोकदल चौटाला की, नेशनल कांफ्रेंस उमर अब्दुल्ला की, पैंथर पार्टी भीम सिंह की और पीडीएफ मुफ्ती की निजी पार्टियां हैं। भाजपा, माकपा, भाकपा, जद (यू) छोड़ कांग्रेस सहित अधिकांश दल एक-एक परिवार की जागीर हैं। मुक्त अर्थशास्त्र की भाषा में कहें तो निर्वाचन आयोग में पंजीकृत सात राष्ट्रीय व 37 क्षेत्रीय पार्टियों में से भाजपा, भाकपा, माकपा और जद (यू) कमोबेश सार्वजनिक उद्यम हैं और कांग्रेस सहित बाकी 40 पार्टियां निजी क्षेत्र के उद्योग हैं। कांग्रेस पं. नेहरू से पुत्री इंदिरा गांधी को, उनसे पुत्र राजीव गांधी को फिर उनसे पत्नी सोनिया गांधी को हस्तांरित हुई है। राजद प्रमुख लालू अपनी पत्नी को ही मुख्यमंत्री व नेता प्रतिपक्ष बनाने की नीति पर चले। शिवसेना बाल ठाकरे पुत्र उद्धव ठाकरे को मिली। डीएमके करुणानिधि पुत्र स्टालिन के नाम हो गई। सपा अब युवा पुत्र अखिलेश यादव की है। नेशनल कांफ्रेंस फारुक से उमर अब्दुल्ला के नाम दाखिल-खारिज हो गई। बाकी बची निजी पार्टियां भी इसी रास्ते हैं। कौटिल्य ने अर्थशास्त्र में राजपुत्र को केकड़ा जैसा खतरनाक प्राणी बताया था, लेकिन तमाम नेताओं ने अपने पुत्रों, पुत्रियों, पत्नियों को आगे बढ़ाया है। कांग्रेस राहुल को भारत का भविष्य बता रही है। बाकी अनुकरण कर रहे हैं। सत्तावादी राजनीति में राष्ट्रीय और क्षेत्रीय विवाद बेमतलब हैं। यह राजनीति राष्ट्रनिर्माण का उपकरण नहीं है। भारत के करोड़ों लोग एक संस्कृति के कारण ही एक जन एक राष्ट्र हैं, लेकिन राजनीति की प्रेरणा सत्ता है, सत्ता का आधार क्षेत्रीयता, जातीयता, पंथ, मजहब और पूंजी है। भारत में ढेर सारी विविधताएं हैं। अनेक बोलियां हंै, रीतिरिवाज हैं और भू क्षेत्रीय विविधताएं भी हैं। राजकाज में स्वाभाविक ही सभी विविधताओं को अवसर मिलने चाहिए, लेकिन राजनीति विविधता को गोलबंद करती है, क्षेत्रीयता को राष्ट्रीयता से ऊपर रखती है, भाषा, पंथ, मजहब के आग्रहों का राजनीतिकरण करती है। संकीर्णता और राष्ट्रीयता की टक्कर होती है। राष्ट्र कमजोर होता है। जम्मू-कश्मीर की अधिकांश पार्टियां स्वायत्तता का राग अलापती हैं। स्वायत्तता की मांग अलगाववादी है, लेकिन केंद्र इस विचार को आदर देता है। मुंबई का एक राजनेता सरेआम उत्तर प्रदेश, बिहार के गरीबों की पिटाई कराता है, हीरो हो जाता है। सत्तावादी राष्ट्रीय राजनीति उसके खिलाफ मुंह सिए रहती है। राज्य विभाजन की नित नई मांगों का आधार भी यही क्षेत्रवादी राजनीति है। मुख्यमंत्री, राज्यपाल और ढेर सारे मंत्री पद ही इन मांगों का मूल केंद्र हैं। क्षेत्रीय दल क्षेत्रीय नेताओं की सत्ता आकांक्षा से जन्म लेते हैं।

बेशक स्थानीयता या क्षेत्रीयता कोई बुरी आकांक्षा नहीं है, लेकिन राष्ट्रीयता से क्षेत्रीयता का टकराव राष्ट्र के लिए अनिष्टकारी है। कांग्रेस देश की सबसे पुरानी पार्टी है। 1947 के पहले कांग्रेस के भीतर खांटी समाजवादी थे, घोर पूंजीवादी थे और राष्ट्रवादी भी थे। सत्तासीन होने के बाद कांग्रेस सबका साझा मंच नहीं बन सकी। समाजवादियों ने अलग पार्टी बनाई। कांग्रेस स्वयं टूटने लगी। एस. निजलिंगप्पा की अध्यक्षता (1968-69) के बाद कांग्रेस (ओ) और कांग्रेस (आर) हो गई, फिर कांग्रेस (आई-इंदिरा) हो गई। इसी कांग्रेस से तृणमूल कांग्रेस और पवार की एनसीपी निकलीं। जनता पार्टी के मोरारजी देसाई निकले, जगजीवन राम निकले, समाजवादी चंद्रशेखर निकले। नारायण दत्त तिवारी और अर्जुन सिंह ने कांग्रेस (तिवारी) बनाई थी। कम्युनिस्ट पार्टी चीन-रूस समर्थन को लेकर टूट गई। कम्युनिस्ट तीन दर्जन से ज्यादा समूहों में बंटे। सोशलिस्ट टूटते रहे। जनता दल बना, टूटा, बिखरा। बाकी सभी दल टूटे, लेकिन भाजपा जनसंघ काल (1951) से नहीं टूटी। इसका कारण पार्टी की वैचारिकता है। राजनीतिक दल गठन का आधार विचार ही होना चाहिए, लेकिन भारतीय राजनीति में विचार आधारित दल और दलीय संविधान संचालित संगठन तंत्र का अभाव है।

क्या 125 बरस पुरानी कांग्रेस विचार आधारित पार्टी है? क्या कांग्रेस गांधीवादी है? या तिलक, गोखले, विपिनचंद्र पाल की परंपरा में राष्ट्रवादी है? अगर राष्ट्रवादी है तो अलगाववादी मजहबी आरक्षण की पक्षधर क्यों है? बांग्लादेशी घुसपैठ पर मौन क्यों है? प्रधानमंत्री कांग्रेस को राष्ट्रीय और सपा, लोजपा, अकाली दल वगैरह को क्षेत्रीय मानते हैं। कांग्रेस इनसे भिन्न क्यों है? वामदल भटकाव में हैं, लेकिन उनकी विचारधारा है। मुख्य विपक्षी दल भाजपा राष्ट्रीय एकता से भिन्न प्रत्येक संकीर्ण विचार, पंथ, मजहब और क्षेत्रवाद की विरोधी है। राष्ट्रीय दल राष्ट्रीयता को लेकर जनअभियान नहीं चलाते। प्रधानमंत्री, नेता प्रतिपक्ष और सभी राष्ट्रीय दलों के कर्ताधर्ता नोट करें कि क्षेत्रीय दल अपने दम पर ताकतवर नहीं हैं। वे गठबंधन राजनीति की चरित्रहीनता से पनपे हैं। वे राष्ट्रीय दलों की रुग्णता, अक्षमता से खाली राजनीतिक जमीन पर ही लहलहा रहे हैं। राष्ट्रीय दल देश के कोने-कोने राष्ट्रीयता की पौध लगाएं वरना क्षेत्रीयता के झाड़-झंखाड़ उगेंगे ही। कोसना छोडि़ए, काम कीजिए। (लेखक उप्र सरकार के पूर्व मंत्री हैं)

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